वृन्दावनदास ठाकुर
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पूरा नाम | वृन्दावनदास ठाकुर |
जन्म | 1507 ई. |
जन्म भूमि | नवद्वीप, पश्चिम बंगाल |
मृत्यु | 1589 ई. |
अभिभावक | बैकुंठनाथ ठाकुर तथा नारायणी देवी |
गुरु | श्रीमन नित्यानंद प्रभु |
कर्म भूमि | पश्चिम बंगाल, भारत |
मुख्य रचनाएँ | 'चैतन्य भागवत', 'श्रीनित्यानंद चरितामृत', 'आनंदलहरी', 'तत्त्वसार', 'तत्त्वविलास', 'भक्तिचिंतामणि'। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | चैतन्य महाप्रभु, गौड़ीय सम्प्रदाय, चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत |
अन्य जानकारी | वृन्दावनदास ठाकुर ने 'चैतन्य मंगल' ग्रंथ लिखा है, जो बाद में 'चैतन्य भागवत' नाम से प्रसिद्ध हुआ। कृष्णदास कविराज ने अपने ग्रंथ 'चैतन्य चरितामृत' में इसकी बड़ी प्रशंसा की है। |
वृन्दावनदास ठाकुर (जन्म: 1507 ई., पश्चिम बंगाल; मृत्यु: 1589 ई.) बंगला भाषा में 'चैतन्य भागवत' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता थे। यह ग्रन्थ चैतन्य महाप्रभु का जीवनचरित है। यह "बंगला भाषा का आदि काव्य ग्रंथ" माना जाता है। वृन्दावनदास जी श्री नित्यानंद प्रभु के मन्त्र शिष्य थे। इन्होंने 'चैतन्य भागवत' में भगवान चैतन्य महाप्रभु की विभिन्न लीलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
जन्म
श्री हट्टनिवासी श्रीजलधर वैदिक पण्डित अपनी पत्नि सहित पश्चिम बंगाल के नवद्वीप में आकर बस गये थे। उनके पाँच पुत्र थे- नलिन, श्रीवास, श्रीराम, श्रीपति एवं श्रीनिधि। नलिन एक कन्या नारायणी के पिता बनने के बाद कुमारहट्ट में संसार से विदा हो गए। उनके छोटे भाई श्रीवास पण्डित ने नारायणी एवं उनकी माता को अपनी देख-रेख में नवद्वीप में रखा। नारायणी की माता का भी कुछ दिनों में ही परलोक गमन हो गया। यथा समय यौवनावस्था प्राप्त होने पर श्रीवास पण्डित ने नारायणी का विवाह कुमारहट्ट निवासी एक कुलीन विप्र वैकुण्ठनाथ ठाकुर के साथ कर दिया। कुछ समय पश्चात नारायणी देवी गर्भवती हुई। वह चार-पाँच मास की गर्भवती थी कि तभी देव इच्छा से पति वैकुण्ठनाथ का वैकुण्ठगमन हो गया। नारायणी गर्भावस्था में ही अनाथिनी या विधवा हो गयी। यथेष्ठ समय नारायणी देवी ने कुमारहट्ट में एक पुत्र को जन्म दिया। जन्म समय ठीक निश्चित न होने पर भी अनुमानत: शकाब्द 1441-42 (सन 1516-1520 ई.) निर्धारित होता है।
माता की विपदा
बाल्यकाल से ही वृन्दावनदास में असाधारण गुण दीखने लगे थे-
"भाग्यवान् बिरवानके होत चीकने पात।"
अनाथिनी नारायणी पुत्र को लेकर दरिद्र ससुराल में विपदा में पड़ गयी। वह बड़े कष्ट से दिन काट रही थी। नारायणी, जिसके परम सौभाग्यवान पुत्र 'चैतन्य भागवत' के रचयिता व्यासावतार वृन्दावनदास ठाकुर थे, उन्होंने अनेक स्थलों पर अपनी माता नारायणी देवी की बात कही है, किन्तु न तो उनका लक्ष्य अपनी माता के महिमा प्रकाश में है और न ही निजी महिमा-प्रकाश का। एकमात्र महाप्रभु की अहैतुक असीम कृपा का ही विज्ञापन उनका ध्येय है। वस्तुत: नारायणी देवी तो परम स्तुत्या परम वन्दनीया हैं ही, क्योंकि व्रजलीला में यह अम्बिका की बहन किलिम्बिका थी और वहाँ यह नित्य कृष्ण का उच्छिष्ट भोजन करती थी-
अम्बिकाया: स्वसा यासीन्नाम्नी श्रील-किलिम्बिका। कृष्णोच्छिषटं प्रभुञ्जाना सेयं नारायणी मता॥[1]
श्रीवास, श्रीराम, श्रीपति एवं श्रीनिधि तो नवद्वीप लीला में महाप्रभु के मुख्य संगी थे, क्योंकि नारायणी के पिता नलिन महाप्रभु लीला-प्रकाश से पहले ही पधार चुके थे, इसलिए उनका नाम चैतन्य चरित्र ग्रन्थों में कहीं नहीं देखा-सुना जाता। नवद्वीप के अर्न्तगत गंगा के पश्चिम पार मामगाछि-मोदद्रुमद्वीप महाप्रभु के परमभक्त श्री वासुदेव दत्त ने एक मन्दिर स्थापित किया था। वह स्वयं कांचड़ा पाड़ा ग्राम में रहते थे। महाप्रभु की नवद्वीप लीला के समय प्रभु के निकट वास करने के लिए उन्होंने मामगच्छी में देव सेवा स्थापित की थी, किन्तु बाद मे प्रभु के संन्यास ग्रहण करने के बाद नवद्वीप न आ-जा सके। श्रीवास पण्डित आदि भी प्रभु की सन्यास लीला के बाद कुमारहट्ट में आकर रहने लगे थे। श्रीवास के साथ वासुदेव दत्त की परम मित्रता थी। अत: उस नाते से दुखिया नारायणी देवी को उन्होंने उस मन्दिर की सेवा का भार सौंप दिया। नारायणी पुत्र वृन्दावनदास के साथ मामगच्छी में रहने लगी। आज तक वहाँ की "नारायणी-सेवा" प्रसिद्ध है।
शिक्षा-दीक्षा
मामगच्छी भी उस समय विद्या का केन्द्र था। अनेक पण्डित-विद्वान वहाँ वास किया करते थे। वहीं यथा समय वृन्दावनदास ठाकुर ने बाल्य-विद्या एवं संस्कृत विद्या ग्रहण की। थोड़े ही दिनों में सर्वशास्त्र पारंगत हो गये, अप्रतिम प्रतिभाशाली तो थे ही। विशेषत: सर्व वेदवेत्ता भगवान श्री चैतन्य देव की उच्छिष्ट-पात्रा नारायणी देवी की गर्भजात सन्तान थे। भक्त संग एवं शास्त्राध्ययन के फलस्वरूप इन्हें संसार की असारता प्रत्यक्ष हो गयी। इसी बीच माता का भी परलोक गमन हो गया। माता के परलोकवासी हो जाने से वृन्दावनदास जी परम विरक्त हो उठे, किन्तु उन्होंने सन्यास ग्रहण नहीं किया। तत्कालीन गौड़ीय वैष्णवों में सन्यास कोई भी न लेता था। अत: इन्होंने अपने ग्रन्थ 'चैतन्य भागवत' में जगह-जगह कलियुग में सन्यास ग्रहण का तीव्र विरोध किया है, और न ही इन्होंने परवर्ती काल के त्यागी वैष्णव-बाबाजी का वेष-आश्रय किया, क्योंकि उस समय वेषाश्रय-संस्कार भी प्रचलित न था। इन्होंने विवाह भी नहीं किया।
उस समय नवद्वीप देश, बंग प्रदेश में नित्यानन्दप्रभु सब जीव-जगत को नाम-प्रेम प्रदान कर रहे थे। वृन्दावनदास ठाकुर जी ने आकर नित्यानन्द प्रभु का पदाश्रय ग्रहण किया। नित्यानन्दजी ने इन्हें दीक्षा प्रदान कर अपने शिष्य रूप में आत्मसात किया। पूर्व संस्कार वश इनमें सख्य भाव का उद्रेक था। सख्य भाव के ये उपासक थे। ये नित्यानन्द प्रभुपाद के आखिरी शिष्य थे। उन्होंने महान कृपा कर इन्हें 'चैतन्य चरित' लिखने की आज्ञा ही नहीं की, इनमें शक्ति भी संचार की-
अन्तर्यामी नित्यानन्द बलिला कौतुके। चैतन्यचरित्र किछु लिखिते पुस्तके।।
नित्यानन्दस्वरूपेर आज्ञा करि शिरे। सूत्र मात्र लिखि आमि कृपा अनुसारे।।
तांहार आज्ञाय आमि कृपा अनुरूपे। किछु मात्र सूत्र आतिम लिखिल पुस्तके।।
सेइ प्रभु कलियुगे अवधूत राय। सूत्र मात्र लिखि आमि ताँहार आज्ञाय।।
इस प्रकार अनेक स्थलों पर ठाकुर महाशय ने नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा-कृपानुसार इस ग्रन्थ की रचना का उद्घोष किया।
मथुरा आगमन तथा ग्रंथ रचना
वृन्दावनदास ठाकुर ने देनुड़ में श्री श्रीगौरनिताई विग्रहों की प्रतिष्ठा की थी। इनके अनेक शिष्य बने थे। उनमें श्री रामहरि नामक एक कायस्थ शिष्य भी था, उसके ऊपर श्री विग्रह-सेवा का भार सौंपकर वृन्दावनदास ठाकुर स्वयं वृन्दावन, मथुरा चले आये। वृन्दावनदास ठाकुर ने 'चैतन्य मंगल' नामक ग्रंथ लिखा था, जो बाद में 'चैतन्य भागवत' नाम से प्रसिद्ध हुआ। कृष्णदास कविराज ने अपने ग्रंथ 'चैतन्य चरितामृत' में इसकी बड़ी प्रशंसा की है। कवि कर्णपूर ने वृन्दावनदास को "वेद व्यास का अवतार" कहा है। अंतिम अवस्था में वृन्दावनदास ठाकुर वृंदावन आये थे। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं- 'चैतन्य भागवत', 'श्रीनित्यानंद चरितामृत', 'आनंदलहरी', 'तत्त्वसार', 'तत्त्वविलास' तथा 'भक्तिचिंतामणि'।
परलोक गमन
निश्चित रूप से 'चैतन्य भागवत' वृन्दावनदास ठाकुर की एकमात्र प्रसिद्ध रचना है। हरिदास जी ने श्री गौड़ीय वैष्णव अभिधान में कुछ एक और रचनाओं का भी उल्लेख किया हैं- 'श्रीनित्यानन्द प्रभु का वंश-विस्तार', 'श्री गौरांग-विलास', 'चैतन्यलीला मृत', 'भजन-निर्णय', 'भक्ति चिन्तामणि'। इनके उल्लेख के बाद उन्होंने लिखा है कि ये ग्रन्थ श्रीवृन्दावनदास ठाकुर के नाम आरोपित हैं, अर्थात उनकी रचनाएँ होने में सन्देह है। अनुमानत: वृन्दावनदास ठाकुर 70 वर्ष तक इस धराधाम पर विराजमान रहे। श्रीश्रीनिताई-गौर लीलारसामृत का अनुपम अवदान जीव-जगत को प्रदान कर सन 1589 में नित्यलीला में वे प्रविष्ट हो गये। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय आज भी उनके प्रदत्त अवदान स्वरूप श्रीश्रीनिताई-गौर प्रेमलीलारस सागर में अवगाहन कर अपने को कृतार्थ मानता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गौरगणेददेशदीपिका, 43
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