वृथा हठ दूरि किन करो प्यारी।
कहा रिस करति, ह्याँ छाहँ अपनी देखि, उर कोऊ नही रिस जरति भारी।।
तुमहि धन रहति, मन नैन मैं तुम बसति, कनक सौ लेहु कसि कहा बैठी।
चतुरई कहँ गई, बुद्धि कैसी भई, चूक समुझे बिना भौंह ऐठी।।
यह सुनत रिस भरी, रहीं नहिं तहँ खरी, ओट ह्वै झरहरी मान कीन्हौ।
जाहु मन मन कह्यौ, मैं बहुत सुख लह्यौ, सौति दिखराइ मोहिं 'सूर' दीन्हौ।।2420।।