बृंदाबन हरि रास उपायो -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


बृंदाबन हरि रास उपायौ। देखि सरद-निसि रुचि उपजायौ।।
अद्भुत मुरली-नाद सुनायौ। जुबति सुनत तनु दसा गँवायौ।।
मिलि धाईं मन को फल पायौ। जंगम चले चलत ठहरायौ।।
उलटी जमुना धार बहायौ। सुनि धुनि चंचल पवन थकायौ।।
सुर नर मुनि कौ ध्यान भुलायौ। चंद्र गगन मारग बिसरायौ।।
रूप देखि मन काम लजायौ। रस मैं अंतर बिरस जतायौ।।
जुवतिनि कैं तनु बिरह बढा़यौ। बहुरि मिले अति हित उपजायौ।।
फेरि रास मंडली बनायौ। हाव भाव करि सबनि रिझायौ।।
कल्प रैनि रस हेत उपायौ। प्रात समय जमुना-तट आयौ।।
नारिनि के निसि-स्रमहिं मिटायौ। जुवतिनि प्रति प्रति रूप बनायौ।।
सिव नारद सारद यह गायौ। ध्यारन टरयौ चित तहाँ चलायौ।।
रमाकंत जा सुख कौं ध्यायौ। सो सुख नंद-सुवन ब्रज आयौ।।
राधा बर निज नाम कहायौ। सूरदास कछ कहि कहि गायौ।।1179।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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