विषय चित्त दोऊ है माया -सूरदास

सूरसागर

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विषय चित्त दोऊ है माया। दोऊ जड़ ज्यौ तरुवर छाया।।
तरुवर डोलै डोलै सोई। ज्यौ जिय लगि चित चेत नहोई।।
फिरि जब चित्त विषय तन जोवै। चित्त विषै सँयोग तब होवै।।
ऐसी भाँति रहै दोउ गोइ। तिन्है न्यारे करि सकै न कोइ।।
ज्यौ सपने मैं सुख दुख जोइ। जानि सत्य राखै चित लोइ।।
जब जागै तब मिथ्या जानै। ज्ञानी इनकौ नित यौ मानै।।
विषय चित्त दोऊ भ्रम जानौ। आतम रूप सत्य करि मानौ।।
स्रवनादिक मैं चित्त लगावहु। प्रेमसहित मम रूपहि ध्यावहु।।
ऐसै करत विषै हू होइ। अरु मम चरन रहै चित गोइ।।
जो ऐसी बिधि साधन करे। सो सहजहिं मम पद अनुसरे।।
और जु बीचहिं तन छुटि जाइ। तौ लै जन्म भक्त गृह आइ।।
ह्वाँ हूँ प्रेमभक्ति कौ ठान। पावै मेरौ परम-स्थान।।
सनकादिक सौ कहि यह ज्ञान। परम हंस भए अंतर्धान।।
जो यह लीला सुनै सुनावै। ‘सूर’ सो प्रेमभक्ति कौ पावै।। 4 ।।

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