लोचन मेरे भृग भए री।
लोक-लाज-बन-घन-बेली तजि, आतुर ह्वै जु गए री।।
स्याम-रूप-रस-बारिज-लोचन, तहाँ जाइ लुबधे री।
लपटे लटकि पराग बिलोकनि, सपुट लोभ परे री।।
हँसनि प्रकास विभास देखि कै निकसत पुनि तहँ पैठत।
'सूर' स्याम अंबुज कर चरननि, जहाँ तहाँ भ्रमि बैठत।।2277।।