लोचन भृंग कोस रस पागे -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग रामकली


लोचन भृंग कोस रस पागे। स्याम कमल-पद सौ अनुरागे।।
सकुच कानि बन बेली त्यागी। चले उड़ाइ सुरति-रति-लागी।।
मुकृति पराग-रसहिं इनि चाख्यौ। भव-सुख-फूल रसहिं इनि नाख्यौ।।
इनि तै लोभी और न कोई। जो पटतर दीजै कहि सोई।।
गए तबहिं तै फेरि न आए। 'सूर' स्याम वै गहि अटकाए।।2278।।

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