लोक-सकुच कुल-कानि तजी।
जैसैं नदी सिंधु कौं धावै, वैसैंहि स्याम भजी।।
मातु पिता बहु त्रास दिखायौ, नैकु न डरी, लजी।
हारि मानि बैठे, नहिं लागति, बहुतै बुद्धि सजी।।
मानति नहीं लोक-मरजादा, हरि कैं रंग मजी।
सूर स्याम कौं मिलि, चूनौ-हरदी ज्यौं रंग रँजी।।1621।।