ललित गति राजत अति रघुवीर -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग नट
धनुष-भंग; पाणिगृहण


  
ललित गति राजत अति रघुवीर।
नरपति सभा मध्य मनौ ठाढ़े, जुगल हंस मति बीर।
अलख अनंत अपरमिति महिमा, कटि तट कसे तुनीर।
कर धनु, काकपच्छ सिर सोभित, अंग अंग दोउ वीर।
भूषन बिबिध विसद अंवर जुत, सुंदर स्याम समीर।
देखत मुदित चरित्र सवै सुर व्यौम-बिमाननि भीर।
प्रमुदित जनक निरखि मुख-अंबुज, प्रगट नैन मधि नीर।
तात-कठिन-प्रन जानि जानकी, आनति नहि उर धीर।
करुनामय जब चाप लियौ कर, बाँधि सुदृढ कटि-चीर।
भूभृत सीस नमित जो गर्वगत, पावक सीच्यो नीर।
डोलत महि अधीर भयौ फनिपति, कूरम अति अकुलान।
दिग्गज चलित, खलित मुनि-आसन, इंद्रादिक भय मान।
रवि मग तज्यौ, तरिक ताके हय, उत्पय लागे जान।
सिव-विरंचि व्याकुल भए धुनि सुनि, जब तोरयो भगवान।
भंजन-शब्द प्रगट अति अद्भुत , अष्ट दिसा नभ - पूरि ।
स्रवन हीन सुनि भए अष्टकुल नाग गरब भय चूरि।
इष्ट-सुरनि बोलत नर तिहिं सुनि, दानव-सुर बड़ा सूर।
मोहित बिकल जानि जिय सबहीं, महाप्रलय को मूरि।
पानिग्रहन रघुवर बर कीन्ह्यौ, जनकसुता सुख दीन।
जय-जय धुनि सुनि करत अमरगन, नर-नारी लवलीन।
दुष्टनि दुख,सुख संतनि दीन्हौ, नूप-व्रत पूरन कीन।
रामचंद्र दसरथहिं विदा करि सूरदास रस-भीन।।26।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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