रोवति महरि फिरति बिततानी।
बार-बार लै कंठ लगावति, अतिहिं सिथिल भई पानी।
नंद सुवन कैं पाइ परी लै, दौरि महिर तब आइ।
व्याकुल भई लाडिली मेरी, मोहन देहु जिवाइ।
कछु पढ़ि-पढ़ि कर, अंग परस करि, बिष अपनौ लियौ भारि।
सूरदास-प्रभु बड़े गारुड़ी, सिर पर गाड़ू डारि।।759।।