रोमावली-रेख अति राजति।
सूच्छम बेष धूम की धारा, नव घन ऊपर भ्राजति।
भृगु-पद-रेख स्याम-उर सजनी, कहा कहौं ज्यौं छाजति।
मनहूँ मेध-भीतर दुतिया-ससि, कोटि-काम-दुति लाजति।
मुक्ता-माल नंद-नंदन-उर, अर्द्ध सुधा-घट भ्राजति।
तनु श्रीखंड मेध उज्वल अति, देखि महाबलि साजति।
बरही-मुकुट इंद्र-धनु मानहुँ तड़ित दसन-छबि लाजति।
इकटक रही बिलोकि सूर प्रभु, निमिषनि की कह हाजति।।638।।