रोज की आदत मेरी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्री कृष्ण के प्रेमोद्गार

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राग सोहनी - ताल कहरवा


रोज की आदत मेरी यह छूटनी सम्भव नहीं।
भूल जा‌ओ तुम मुझे, यदि चाहती हो सुख कहीं॥
भरा दोषों से, तुम्हारे साथ कुछ तुलना नहीं।
रूप-गुण-माधुर्य में तुम-सी नहीं ललना कहीं॥
दिव्य प्रतिमा प्रेम की तुम त्याग की शुचि मूर्ति हो।
इस अभावों से भरे जीवन की मधुमय पूर्ति हो॥
अतुल निज गुणसे मुझे गुणवान ही तुम जानती।
प्रेम-गुण-माधुर्य-पूरित हो मुझे तुम मानती॥
गुण अमल अति पर असल में है तुम्हारा भ्रम महान।
भूल से तुम जानती हो, मुझे नित शुचि प्रीतिमान॥
प्रेम निर्मल से रहित, शुचि रूप सद्‌‌गुणहीन मैं।
मधुरिमा मुझमें न कुछ, हूँ कलुष-पूरित दीन मैं॥
योग्यता की दृष्टि से मैं अनधिकारी हूँ सदा।
पर न करती तुम मधुर निज प्रीति से वञ्चित कदा॥
इस तुम्हारे एक-‌अङ्गी प्रेम का मैं दास हूँ।
इसी से रहता तुम्हारे पद-युगल के पास हूँ॥
चाहता, तुम छोड़कर मुझको बनो, बस, सुखी अब।
देखकर तुमको सुखी होगा मुझे सुख परम तब॥
पर सकोगी छोड़ तुम, सम्भव नहीं लगता मुझे।
तुम्हीं प्राणाधार, भारी दुःख भी होगा मुझे॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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