रे मन, छाँड़ि विषय को रेंचिवो।
कत तूं सुवा हौत सेमर कों, अंतहि कपट न वचिवो।
अंतर गहत कनक-कामिनि कों, हाथ रहेगौ पचिवो।
तजि अभिमान, राम कहि बौरे, नतरुक ज्वाला तचिवो।
सतगुरु कह्यौ, कहौं तोसों हों, राम-रतन धन संचिवो।
सूरदास-प्रभु हरि-सुमिरन बिनु जोगी-ऋषि ज्यौं नचिवो॥59||