रुपे संग्राम रति खेत नीके।
एक तै एक रनवीर जोधा प्रबल, मुरत नहिं नैकु अति सबल जी के।।
भौह कोदंड, सर नैन, धानुषि काम, छुटनि मानौ कटाच्छनि निहारै।
हँसनि दुज चमक करवरनि लौ है झलक नखनि-छत-घात नेजा सम्हारै।।
पीत पट डारि, कंचुकी मोचित करन, कवच सन्नाह सो छुटै तन तै।
भुजा भुज धरत, मनु द्विरद सुडनि लरत, उर उरनि भिरे दोउ जुरे मन तै।।
लटकि लपटानि मानौ सुभट लरि परे खेत, रति सेज, रुचि ताम कीन्हे।
'सूर' प्रभु रसिक प्रिय राधिका रसिकिनी, कोक गुनसहित सुख लूटि लीन्हे।।2129।।