रीति मटुकी सीस धरैं।
बन की घर कि सुरति न काहूं, लेहु दही यह कहति फिरैं।।
कबहुंक जाति कं भीतर कौं, तहाँ स्याम की सुरति करैं।
चौंकि परति, कछु तन-सुधि आवति, जहाँ-तहाँ सखि-सुनति ररैं।।
तब यह कहतिं, कहौं मैं इनसौं, भ्रमि-भ्रमि बन मैं बृथा मरैं।
सूर स्याम कै रस पुनि छाकतिं, वैसेहीं ढंग बहुरी ढरैं।।1623।।