रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 57

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


चैतन्य शुद्ध भक्ति का लक्षण बताया। शुद्ध भक्ति जो है ये प्रेम को उत्पन्न करती है और प्रेम से उत्पन्न है। शुद्ध भक्ति का लक्षण बहुत संक्षेप में और बहुत सार रूप में यह है कि दूसरी आकांक्षा-प्रेम के अतिरिक्त होती नहीं और कोई आकांक्षा अर्थात प्रेमास्पद को प्राप्त करने की आकांक्षा भी नहीं। प्रेमास्पद को प्राप्त करना बड़ा प्रिय और उसमें बड़ा सुख परन्तु प्रेमास्पद के सुख की वांछा है। प्रेमास्पद को प्राप्त करने की वांछा नहीं। इसी का नाम प्रेम है। प्रेमास्पद यदि प्राप्त नहीं होना चाहते, नहीं मिलना चाहते तो प्रेम कहेगा कि प्रेमास्पद के मिलने की इच्छा छोड़ दो। अन्य वांछा-प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की वांछा का परित्याग करे और अन्य पूजा का परित्याग-प्रेम के सिवाय अन्य किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, वस्तु, भावना, कल्पना, किसी की भी पूजा न करे। प्रेम का पुजारी जो भी कोई हो-प्रेम की वांछा, प्रेम का पूजक और ज्ञानकर्म से विलग हो, उनका परित्याग करे। अन्य वांछा का परित्याग, अन्य पूजा का परित्याग और ज्ञानकर्म का परित्याग हो। तो क्या करे?-जो उनको अनुकूल लगे इस प्रकार की सेवा सर्वेन्द्रिय के द्वारा करे। मन-बुद्धि यह सब सवेन्द्रिय में ही हैं। सर्वेन्दिय के द्वारा श्रीकृष्ण की सेवा करें उनकी अनुकूलता के अनुसार-अपनी अनुकूलता के अनुसार नहीं। इसका नाम शुद्ध भक्ति है। इससे प्रेम का उदय होता है। इसके पहले नारद पाञ्चरात्र का एक वाक्य उद्धृत किया जाय-

‘अनन्य ममता विष्णो ममता प्रेमसंगता’ इससे यह सिद्ध हुआ कि स्त्री-पुत्र वित्तादि में ममता रहित होकर श्रीकृष्णनिष्ट ममता ही प्रेम नाम से अभिहित है। अर्थात संसार के लोक-परलोक की किसी वस्तु में ममता न रहे और ममता रहे केवल कृष्णनिष्ठ होकर। इस प्रकार की कृष्णनिष्ठ ममता का ही नाम प्रेम है। यह भगवान के लीला गुणादि को सुन-सुनकर अपने आप प्राप्त होती है। जब यह अवस्था प्राप्त हो जाय तो उसका नाम निर्गुणा भक्ति है। इसका नाम शुद्धा भक्ति है। यह निर्गुणा भक्ति है - इसमें किसी गुण की दृष्टि नहीं है। प्रेम के लिये कहा है - ‘गुणरहितं कामनारहितं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपं प्रतिक्षण वर्धमानम्’[1] यह छः प्रेम के लक्षण कहे हैं।

उसमें सबसे पहला लक्षण है ‘गुणरहितं।’ प्रेमास्पद के गुणजनित प्रेम का अभाव और सांसारिक-तीन प्रकार के गुणों में से किसी गुण को लेकर होने वाली भक्ति यह नहीं है। उसमें क्या होगा कि भगवान की पूर्ण ममता की प्राप्ति होगी और तभी प्रेम के रस की उत्पत्ति होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नारद भक्तिसूत्र-54

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