रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 56

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


भगवान कहते हैं कि मेरी सेवा को छोड़कर ऐसे भक्त जो हैं वे पाँच प्रकार की मुक्तियाँ दी जाने पर भी स्वीकार नहीं करते। ये हैं प्रेमी भक्त। इसका यह अर्थ मानना चाहिये कि वह अमुक्त नहीं है। सेवा से अलग रहकर वे किसी और मुक्ति को नहीं चाहते। लेकिन वे जगत के बन्धन में हैं, सो बात नहीं। जगत का, विषयों का, ममता का, आसक्ति का कोई बन्धन उनके जीवन में रह गया है, ऐसा नहीं। वे समस्त बन्धनों से सर्वथा विमुक्त हैं। तभी वह भगवान के प्रेमी हैं। तो कहते हैं कि भगवान की अपार कृपा से जब कभी किसी अनिर्वचनीय सौभाग्यवश जिनको यह शुद्ध भक्ति की प्राप्ति होती है वे ही अपनी सारी ममता भगवान को समर्पित कर सकते हैं। नहीं तो कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी चीज में ममता रख लेते हैं। शुद्ध भक्ति की जो परिणिता अवस्था है, उसका नाम है प्रेम। ऐसे साधक जो शुद्ध भक्ति के परिणिता अवस्था में पहुँचे हुए हैं वे अपनी-अपनी भावनानुसार भगवत सेवा पाकर के कृतार्थ होते हैं। चैतन्य महाप्रभु के ये उद्गार हैं-

शुद्धभक्ति हैते हय प्रेमेर उत्पन्न।
अतएव शुद्ध भक्तिर कहिये लक्षण।।[1]

शुद्ध भक्ति से ही विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती है। इसलिये शुद्ध भक्ति के लक्षण में संक्षेप में जान लेने चाहिये।

अन्यवांक्षा अन्यपूजा छाड़ि ज्ञानकर्म।
आनुकूल्ये सर्वेन्द्रिये कृष्णानुशीलन।।
एइ शुद्धभक्ति, इहा हैते प्रेम हय।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चैतन्य चरितामृत 2।19।147
  2. चै. च. 2।19।148-149

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