स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन
विषयास्वादन विषयी लोगों का, भोगी लोगों का संसार में आसक्त, गड्ढे में पड़े लोग हैं इनका आनन्दास्वादन है। आत्मरमण शान्त हृदय मुनियों का आनन्दास्वादन है। यह विशुद्ध ज्ञान मार्ग में जो महात्मा पुरुष हैं उनका है और प्रेमियों का है। यह आनन्दास्वादन कैसा है? भगवान का आनन्द का वितरण ही आनन्दास्वादन है। भगवान अपने प्रेमियों के योग्य बनते हैं। कोई उनको माता मान करके माता का सुख भोगता है, पिता मान करके कोई पिता का सुख भोगता है। कोई उनको मालिक मानकर मालिक का सुख भोगता है। कोई मित्र मानकर मित्र का सुख भोगता है। इस प्रकार से भगवान अपने आनन्द का वितरण करते हुए अपने प्रेमियों के आनन्द में आनन्द का रस लेते हैं। यह प्रेम वितरण के द्वारा आनन्द का आस्वादन करना ही भगवान का रमण है। इस भगवान के रमण के अधिकारी कौन है? इसके अधिकारी श्रीगोपीजन है। यहाँ तक की संक्षेप में बात हो चुकी है।
अब कहते हैं कि इसी का नाम शुद्ध भक्ति है और इसी का नाम निर्गुणा भक्ति है। जैसे गंगा की धारा निरन्तर समुद्र की ओर सारी विघ्न बाधाओं को हटाती हुई चली जा रही है; इसी प्रकार जिसके मन की गति अविछिन्न भाव से निरन्तर भगवान की ओर बहती रहे उसका नाम निर्गुणा भक्ति है।
- लक्षण भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम्।
- अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे।।[1]
तो ऐसे भक्तों की क्या चाह होती है?
- सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत।
- दीयमानं न गृह्णन्ति बिना मत्सेवनं जनाः।।[2]
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