रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 54

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

(4)

भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।।

तीन दिन तक इस श्लोक पर पहले बात चीत हो चुकी है। पहली बात है कि श्लोक का जो पहला शब्द है ‘भगवान’-उस पर संक्षेप में जो बात हुई थी उसको समझ लें। यह भगवान का रमण है। भगवान कौन? जो छः प्रकार के महान ऐश्वर्य से सम्पन्न। उनमें अनन्त ज्ञान है, अनन्त वैराग्य है, अनन्त ऐश्वर्य है, अनन्त श्री है, अनन्त वीर्य है, अनन्त कीर्ति है, अनन्त यश है। इस प्रकार के भगवान जिनको किसी चीज की इच्छा नहीं और अगर इच्छा हो तो इन चीजों को अपने-आप प्रकट कर लें, बना लें। दूसरे के द्वारा उनको सुख प्राप्त करने की न इच्छा है और न आवश्यकता। उसकी व्याख्या हुई कि वे छः ऐश्वर्य कौन से हैं, कितने हैं, कैसे हैं?

दूसरा शब्द है रमण। रमण का अर्थ, किया गया आनन्दास्वादन-आनन्द का आस्वादन। आनन्दास्वादन के तीन भेद किये गये-विषयी लोगों का आनन्दस्वादन, आत्माराम मुनियों का आनन्दास्वादन और भगवान का आनन्दास्वादन। इसमें जो आनन्दांश है यह तीनों में ही भगवान का है। क्योंकि आनन्द भगवान में ही है और कहीं आनन्द है ही नहीं। लेकिन विषय रस में जो आनन्द है वह आनन्द भी भगवान का है पर विषयासक्त लोग क्या करते हैं कि जैसे कोई आदमी थोड़ी-सी मिश्री के साथ बहुत-सा नीम चूर्ण मिला ले। रस के साथ कोई गन्दी चीज मिला ले। इस प्रकार विषयासक्त पुरुषों का जो रसास्वादन है-विषयास्वादन यह भगवान में हो नहीं सकता। दूसरी चीज है मुमुक्षु लोगों का, ज्ञानियों का जिनका अन्तःकरण परम विशुद्ध है, उन महात्माओं का आनन्दास्वादन। वह आनन्दास्वादन है आत्मरमण। यहाँ रमण में पहला जो है वह विषय सेवनरूपी रमण है - आनन्दास्वादन और ज्ञानियों का है आत्मरमण-आत्मा में ही नित्य रमते हैं। यह इनका रमण है। भगवान जो हैं वह आनन्द के सागर हैं, आनन्द की निधि हैं, आनन्द के उद्गम स्थान हैं। इसलिये आत्माराम लोगों को जो सुख है आत्मरमण का उसकी इनको आवश्यकता नहीं-वह इनका स्वरूप ही है। विषयानन्द इनके पास आ ही नहीं सकता। इनका आनन्दास्वादन है-स्वरूपानन्द वितरण-अपने स्वरूप के आनन्द को लोगों में बाँटना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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