रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 50

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


इस तैत्तिरीय उपनिषद के मंत्र द्वारा यह आता है कि यदि आकाशवत अपरिमित आनन्द न होता तो जगत के जीव किस वस्तु को लेकर जीवन धारण करते। अतः यह एक बात देखी जाती है कि सर्वव्यापी परमानन्दस्वरूप ब्रह्म रूप रसादि समस्त विषयों में अवस्थित हैं और बहिर्मुखी लोग जो हैं वे मूल ब्रह्म वस्तु को न देखकर रूप रसादि विषयों में भावना करके स्वरूपानन्द को भूलकर विषयानन्द में रम जाते हैं। इसलिये वो वहाँ आनन्द मानते हैं, ब्रह्म का नहीं विषयों का। वहाँ बात भी क्या है जैसे शहद का- मधु का भरा हुआ कोई पात्र हो और उसमें से झरकर मधु धूल में गिरे और उस मधुकण के साथ उसका आस्वादन करे तो धूल साथ आ जाय। धूल भी चाटने लगे मधु के साथ तो मिष्ठता तो है मधु की पर यह धूल चाटते हैं।

यह प्रश्न इसलिये उठा कि भगवान आनन्दमय हैं। भगवान का ही आनन्द विषयों में आता है। भगवान का आनन्द ही जगत में सब जगह फैला है। फिर यह जो विषयों में आनन्द भगवान देते हैं यह क्या कोई दूसरा आनन्द है या और कहीं से उधार लेकर देते हैं। एक और उदाहरण देते हैं जैसे - गधा जो होता है उसकी प्यास मिटाने के लिये स्वच्छ सरोवर का ही स्वच्छ जल दिया जाता है। गधा क्या करता है कि अपने स्वभाववश उसमें कीचड़ मिलाकर पीता है तो वह गधे का कीचड़ मिलाया हुआ पानी देखकर कोई यह कहे कि गधे को स्वच्छ सरोवर का पानी न देकर कहीं और से लाकर दिया गया यह बात ठीक नहीं। यह भ्रांत धारणा है।

इसी प्रकार जगत के जीवों को जो दुःख मिश्रित आनन्द मिलता है यह उनकी अपनी भूल के कारण से ही मिलता है परन्तु जो आनन्द है वह परब्रह्म के स्वरूपानन्द से पृथक वस्तु नहीं; आनन्द एक ही चीज है। जीवगण अनादिजन्मसंचित बहिर्मुखता के वश में होकर इस परमानन्द को ही विषयमिश्रित करके भोग बना लेते हैं तो वह दुःख युक्त हो जाता है। ‘एष ह्येवानन्दयाति’ इत्यादि श्रुतियों से प्रतिपादित जो भगवान परब्रह्म हैं उन्हीं का आनन्द-सर्वत्र है।

इस प्रकार से विज्ञानादि, ब्रह्मा, श्रुति प्रतिपादित परब्रह्म विज्ञान स्वरूप होकर भी आनन्दस्वरूप होकर भी आनन्दस्वरूप होकर भी आनन्ददाता है। ‘रस ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति’[1] इत्यादि श्रुति वाक्यों से जाना जाता है जीव यदि रसस्वरूप परब्रह्म के स्वरूपानन्द को ग्रहण कर लें तो आनन्दी हो जाते हैं अर्थात आनन्द का आस्वादन कर सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तैत्ति. उप. 2।7।2

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