रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 46

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


पूतना राक्षसी को मातृगति दी, अघासुरादि को मुक्ति दी, व्रज वासियों को नाना प्रकार की विपत्तियों से बचाया, आग से बचाया, वर्षा से बचाया, आँधी से बचाया। यह भगवान का अनन्त यश जो सारे संसार में परिपूर्ण है। ब्रह्मा, शंकर, शेष, सनक, नारदादि भक्त जिनके यश का निरन्तर गान करते-करते कभी पूरा गान नहीं कर सकते; वे भगवान अपने नित्य यशसेव्यपरीत उत्तम श्लोक नाम वाले, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण यह परदारा रणम की वांक्षा करते - यह कभी सम्भव था? यह असम्भव चीज है। इसलिये यह रमण प्राकृतिक रमण नहीं और फिर वृन्दावनादि का दर्शन करके ब्रह्मादि मुक्त हो गये। चमत्कृत रह गये। यह वचन भागवत में आया है कि सब प्रकार की सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी भी जिनके चरणधूलिकण का स्पर्श पाने के लिये तप करती हैं। उनके लिये क्या प्राकृत रमणासक्त होना कभी सम्भव है। वे सर्वज्ञ है, स्वप्रकाश हैं, जो सबके प्रयोजनी भूत आनन्द की घनीभूत मूर्ति हैं; वे भगवान किस प्रयोजन से रमणासक्त हैं? उनको क्या अभाव है? जो प्रापन्चिक वस्तु अथवा किसी प्रकार के प्रापन्चिक भावों से सर्वथा अनासक्त हो गये, वैराग्यवान हैं वही जान सकते हैं।

भगवान के इन बातों को न जानने वाले लोग ही अपनी कुरुचि वश अपने-आप जिस रमण का अर्थ करते हैं वहीं अर्थ लगाकर भगवान इस ऊँचे-से-ऊँचे सर्वलीला मुकुट मणि इस रासलीला को अश्लील बताते हैं; और कोई-कोई बुद्धि लगाकर इसका जीवात्मा और परमात्मा का मिलन अर्थ लगातें है। वे वास्तविकता से दूर हट जाते हैं। परमहंसशिरोमणि श्रीशुकदेवजी सर्वलीला मुकुट मणि श्रीरासलीला का वर्णन करते समय ‘भगवान ने रमण की इच्छा की’ यह कहकर केवल यही नहीं दिखाया कि यह लौकिक काम-क्रीडा नहीं है बल्कि और भी विशेषता दिखाई। इससे यह समझ लेना चाहिये कि यह लौकिक तो है ही नहीं इसमें और विशेषता भी है।

यहाँ एक दूसरी बात बताते हैं कि भगवान ने रमण की इच्छा की, रमण की इच्छा करते ही क्या हुआ कि पूर्व गगन में पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया। वन-भूमि में शरद-ऋतु में, वसन्त-ऋतु का समागम हो गया, नाना प्रकार के पुष्प खिल उठे जिससे वनभूमि सौरभित और आलोकित हो उठी, मृदुल-मृदुल मलय पवन बहने लगा। नाना-भाव से वृन्दावन के देश-काल आदि भगवान की रमण की इच्छा के अनुकूल मूर्ति धारण करके प्रकट हो गये। यहाँ पर भगवान का परिपूर्ण ऐश्वर्य भी प्रकट है और फिर भगवान ने प्रेमवती गोपरमणियों को आमंत्रित किया, वेणुवादन करके और वह मुरली-ध्वनि चौरासी कोस व्रजमण्डल में परिपूर्ण हो गयी। किन्तु सुना केवल उन प्रेमवती व्रज गोपियों ने जिनको बुलाया था। इससे भगवान की अचिन्त्य महाशक्ति का परिचय मिलता है। गोपरमणियों के साथ भगवान की रमणमयी रासलीला यह भक्त वात्सल्य और प्रेमाधीनता रूप अनन्य असाधारण यश की ही अभिव्यक्ति करने वाली है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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