रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 45

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

Prev.png
स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


फिर कहते हैं एक बात और, दामोदर लीला में जब भगवान के पेट में रस्सी बाँधी गयी-माँ ने बाँधी। उस समय जो भगवान का वीर्य है - अचिन्त्य महाशक्ति वह अनिर्वचनीय चीज थी। उस लीला में वात्सल्य प्रेमवती माँ अपने बायें हाथ से भगवान के दाहिने हाथ को पकड़े हुए है। हाथ कोई इतना वृहत नहीं जो मुट्ठी में न समाया हो - मुट्ठी में उनके हाथ आ गया। और उन्हीं माता की पहनायी हुई किंकिनी उनकी कमर में ज्यों-की-त्यों रही। छोटी नहीं पड़ी लेकिन साथ ही उसी समय बहुत-सी रस्सियों को जोड़-जोड़कर माँ ने बड़ा परिश्रम किया, थक गयी परन्तु बाँध नहीं सकी। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि यशोदा मैया की बाँयी मुट्ठी में जिनका हाथ और जिनके पहनाये हुए हार और किंकिनी उनके वदन में सुशोभित थे वे ही भगवान उस समय रस्सी छोटी करने वाले बन गये, बँधे नहीं। एक साथ विभुता और मध्यवता दोनों का प्रकाश किया भगवान ने।

‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’[1]

यह अचिन्त्य महाशक्ति वहाँ पर साफ दिखाई दी कि एक तरफ तो मुट्ठी वही छोटा हाथ है। एक तरफ कमर में वही तागड़ी है - वही पतली कमर, एक तरफ गलें में हार है वही छोटा - सा गला और एक तरफ सारे गायों की रस्सी इकट्ठी करके कमर नहीं बाँधी जा सकी। इतनी बड़ी कम हो गयी।

यह भगवान की विभुता है। यह भगवान का छोटापन यह बड़ा विस्मयकर है। इस महाशक्ति का हम अगर ध्यान करें तो गोपियों के साथ भगवान का रमण करने की इच्छा करा और उसके लिये चेष्टा करना यह कभी संभव होता है क्या? यह सम्भव है ही नहीं।

श्रीमद्भागवत में ऐसी चीजें बहुत हैं। यहाँ तो हमने दो-तीन उदाहरण मात्र दिये हैं। जहाँ भगवान की विभुता प्रकट है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, यश, श्री, ज्ञान-वैराग्य से परिपूर्ण है यह बात पहले भी आ चुकी है, उससे भी धारणा कर लेनी चाहिये कि ऐसी शक्ति वाले भगवान श्रीकृष्ण का रमण, प्राकृत-लौकिक रमण कदापि नहीं है। इसलिये भगवान ने रमण करने की इच्छा की-इस बात को सुनते ही रमण को लौकिक रमण मानकर कहना, सुनना, विचारना यह सिवाय अज्ञता के और अपराध के अन्य कोई वस्तु नहीं है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कठोप. 1।2।20

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः