रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 41

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

तो समस्त भूतों में महेश्वर हम हैं इस तत्त्व को मूढ़ लोग मेरे इस नर लीलामय विग्रह में नहीं जानेंगे। इसकी अवज्ञा करते हैं। तो श्रीकृष्ण कह देने से जो श्रीभगवान के चरण-भजन-परायण हैं उन भक्तों के मन में तो ऐश्वर्य माधुर्य निकेतन सच्चिदानन्दघन विग्रह स्वयं भगवान की धारणा हो जाती है। परन्तु जो श्रीकृष्ण तत्त्व से अनभिज्ञ हैं और भजन विमुख साधारण मानव हैं उनके मन में अधिक-से-अधिक आता तो एक सामान्य मानव या आदर्श पुरुष या महामानव, इसके आगे वह नहीं जा सकते। शुकदेवजी महाराज त्रिकालदर्शी हैं। उनको तो भगवान की बात कहनी है और श्रीकृष्ण भगवान हैं, इस बात को कहना है।

भगवान का रमण बतलाना है, मानव-रमण नहीं। इसलिये उन्होंने भगवान शब्द कहा। मतलब यह कि जो रासलीला कर रहे हैं ये मनुष्यों की भाँति मनुष्य नहीं और आदर्श पुरुष नहीं अथवा बहुत परिमार्जित बुद्धि वाले लोगों की कल्पना वाले महामानव भी नहीं। यह भगवान है ऐश्वर्य, वीर्यादि षडविध महाशक्ति इनकी स्वाभाविक सम्पत्ति है। अयाचित करूणा और भक्त वात्सल्य इनका स्वतःसिद्ध गुण है। सारे जीवों के ये नियन्ता है। ये तुम्हारी हमारी भाँति असंख्य जीवों से समन्वित कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के नायक हैं और सारे ब्रह्माण्ड इनकी भृकुटी-विलास है। इनकी भौंहों का खेल है। समस्त जड़ वस्तु और जड़ बुद्धि के अतीत इनका जो ये श्रीविग्रह है वह शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप है। हम लोग करोड़ों आदमी चाहे इनकी निन्दा करें, चाहे इनकी प्रशंसा करें इनका कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं है। तथापि ये स्वभावसिद्ध करूणावश मायाबद्ध जीवों की मोह की बेड़ी काटने के लिये स्वतः प्रवृत्त होकर, किसी दूसरे की प्रेरणा से बाध्य होकर नहीं; ये युग-युग में विविध लीला का विकास किया करते हैं।

इसलिये चाहे कोई निन्दा करे, स्तुति करे, कोई परवाह नहीं है। सूर्य उदय होता है तो न जाने कितने जीव जाकर क्या-क्या करते हैं लेकिन सूर्य के उदय होते ही जो सज्जनगण हैं नित्य, नैयेत्यिक कर्मपरायण हैं वे तो ‘नमो विवस्वते ब्रह्मन्’ यह कहकर अर्ध्यदान करते हैं। ‘ध्वायन्ताम् सर्व पापघ्नम्’ कहकर चरणों में प्रणाम करते हैं। इसी प्रकार से श्रीकृष्ण चरण सेवन परायण जो भक्त हैं वे मूढ़ों के, कुतार्किकों के, निन्दकों के अथवा अज्ञान कल्पित निन्दावाद के अथवा लीला की विचित्र-विचित्र कल्पना करके अध्यात्मिक अर्थ करने वालों की परवाह नहीं करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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