रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 35

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


श्रीशक्ति का होता है एक अलग स्वरूप-रूप-सौन्दर्य। कहते हैं कि श्रीकृष्ण का जो रूप है यह परिपूर्ण भाव से प्रकट है। भगवान ने सारी मूर्तियों में लीला की और सभी बड़ी सुन्दर परन्तु श्रीकृष्ण मूर्ति जो है वह सर्वमनोरम है। प्रह्लाद ने भगवान नृसिंह में भी सौन्दर्य देखा इसमें सन्देह नहीं लेकिन श्रीकृष्ण में उसमें अन्तर है क्योंकि वह सबको नहीं दिखाई दिया। ब्रह्मा डर गए, लक्ष्मी डर गयीं, देवता डर गए, ऋषि-मुनि, तत्त्वज्ञ डर गए परन्तु प्रह्लाद को सौन्दर्य दीखा। श्रीकृष्ण की मूर्ति जो है यह सुरासर चित्त-चमत्कारिणी है और यहाँ तक कि अपने-आपको मोहित कर लेती है। अपने रूप को कहीं दर्पण में देख लेते थे तो मोहित हो जाते थे, अपने रूप में स्वयं ही। यह सर्वविस्मातनी, आत्मविसमातनी भगवान की मूर्ति है।

भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति, नर-लीलारूप और चित्तशक्ति-वैभव के प्रकाश के लिये ग्रहित, अपने आपको मोह देने वाली, सौभाग्य सम्पत्ति से युक्त, भूषण की भी भूषण स्वरूप, गहनों को भी सजा दे ऐसी है। माने दूसरी मूर्तियाँ बाहर की चीजों से सज्जित होती हैं। कहते हैं कि ऐसा कपड़ा पहनाओ, ऐसा गहना पहनाओ। यह आया है कि एक दिन यशोदा मैया गहने और कपड़े पहनाने लगीं। पहनावें उतार दें फिर पहनाती फिर उतार दें तो सखियों ने कहा कि मैया! क्या तू आज पगली हो गयी है। यह पहनाती फिर उतारती, पहनाती फिर खोलती, क्या बात है? तो बोलीं कि, यह नहीं पहनाती तो सुन्दर दीखता है और पहनाने पर सुन्दरता घट जाती है। कपड़े, गहने पहनाकर इसकी सुन्दरता घटा रही हूँ- ऐसा मालूम पड़ता है। एक सखी बोली, मैया! इसको कपड़े पहनाओ, ठीक है, परन्तु यह भूषण का भूषण है, अलंकार का अलंकार है, शोभा की शोभा है, परन्तु इसको किसी से शोभा हो जाय; यह ऐसा नहीं है। तो कहती है कि ऐसा सौन्दर्य, ऐसी श्री किसको प्राप्त हुई? किसी को नहीं हुई।

सन्ति भूपि निरूपानि मम पूर्णानि षडगुणैः।
भवेयुसतानि तुलयानि न मया गोपरूपया।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्माण्ड पुराण

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