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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति, नर-लीलारूप और चित्तशक्ति-वैभव के प्रकाश के लिये ग्रहित, अपने आपको मोह देने वाली, सौभाग्य सम्पत्ति से युक्त, भूषण की भी भूषण स्वरूप, गहनों को भी सजा दे ऐसी है। माने दूसरी मूर्तियाँ बाहर की चीजों से सज्जित होती हैं। कहते हैं कि ऐसा कपड़ा पहनाओ, ऐसा गहना पहनाओ। यह आया है कि एक दिन यशोदा मैया गहने और कपड़े पहनाने लगीं। पहनावें उतार दें फिर पहनाती फिर उतार दें तो सखियों ने कहा कि मैया! क्या तू आज पगली हो गयी है। यह पहनाती फिर उतारती, पहनाती फिर खोलती, क्या बात है? तो बोलीं कि, यह नहीं पहनाती तो सुन्दर दीखता है और पहनाने पर सुन्दरता घट जाती है। कपड़े, गहने पहनाकर इसकी सुन्दरता घटा रही हूँ- ऐसा मालूम पड़ता है। एक सखी बोली, मैया! इसको कपड़े पहनाओ, ठीक है, परन्तु यह भूषण का भूषण है, अलंकार का अलंकार है, शोभा की शोभा है, परन्तु इसको किसी से शोभा हो जाय; यह ऐसा नहीं है। तो कहती है कि ऐसा सौन्दर्य, ऐसी श्री किसको प्राप्त हुई? किसी को नहीं हुई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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