रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 34

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

हिरण्यकश्यपु जब नृसिंह भगवान के द्वारा मारा गया तब भी उसमें भगवत बुद्धि नहीं थी। हिरण्याक्ष में भगवत बुद्धि नहीं थी भगवान द्वारा मारे जाने के समय। और रावण में संन्देह था कि नर है कि ईश्वर है परन्तु शिशुपालदि के अनुभव से सिद्ध है कि उनकी मुक्ति हो गयी। भगवान से उसका द्वेष था परन्तु उसकी मुक्ति हो गयी। क्यों हो गई? ऐसा वर्णन आता है कि चतुर्भुज भगवान का सेवक था शिशुपालश्रीकृष्ण के साथ तो द्वेष था पहले से और शिशुपाल निरन्तर उनके सहस्रनाम का पाठ करता तो श्रीकृष्ण नामोच्चारण होता। इस बार-बार के नामोच्चारण से और भय के मारे रूप-चिन्तन से शिशुपाल के प्राणनाश होने के साथ ही लोगों ने देखा उसकी मुक्ति हो गयी। प्रमाण क्या है? सारी सभा प्रमाण है। यह छिपकर काम नहीं हुआ वहाँ पर कि मुक्ति कहीं चुपचाप, गुपचुप मिल गई हो-सो नहीं। सभा में सबने देखा तेज निकला और वह तेज भगवान के चरणों में प्रवेश कर गया। ऐसा हिरण्यकश्यपु के साथ नहीं हुआ। इसलिये इनके यश का विस्तार-जितना यहाँ है उतना अन्यत्र नहीं। इसी प्रकार से कूर्मादि मूर्तियों में ‘श्री’ है अर्थात सर्वसम्पत्ति है परन्तु वहाँ की सर्वसम्पत्ति में पूर्ण विकास नहीं है।

श्रियः कान्ताः कान्तः परम-पुरुषः कल्पतरू
द्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।
कथा गानं नाट्यं गमनपि वंशी प्रियसखी
चिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च।।[1]

भगवान श्रीकृष्ण ने जब वृन्दावन में लीला की उस समय उनका जो वैभव प्रकाश हुआ सम्पत्ति का वह कहा नहीं जा सकता। इस लीला में महालक्ष्मीयाँ तो कान्ता और परमपुरुष श्रीकृष्ण उनके कान्त। वृन्दावन के सारे वृक्ष कल्पवृक्ष। वृन्दावन की भूमि चिन्तामणिस्वरूप। वृन्दावन के जल के सरोवर सभी अमृत। संगीत ही थी वृन्दावन की बात चीत। सभी गाने में ही बोलते थे वहाँ पर। प्रत्येक के बोल में ही राग निकलती थी और वृन्दावन का नृत्य ही गमन, मानों नाच रहे है प्रत्येक आदमी और वृन्दावन की जगन्मोहिनी वंशी श्रीकृष्ण की प्रिय सखी। वहाँ के चन्द्र सूर्यादि और रूप-स्पर्शादि सारे-के-सारे सच्चिदानन्दमय हैं। कृष्ण लीला के सिवाय ऐसी अनिर्वचनीय शक्ति का प्रकाश और कहाँ हुआ? यह भगवान के ऐश्वर्य वीर्यादि षडसम्पत्ति के अन्दर यह महाशक्ति हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्मसंहिता 5-56

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