रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 33

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

श्रीकृष्णलीला में जैसे परिपूर्ण ऐश्वर्य का विकास है इसी प्रकार अचिन्त्य महाशक्ति ‘वीर्य’ का भी पूर्ण विकास है। वह कैसे? श्रीकृष्ण लीला में पूतना का वध किया, रामलीला में भी तो राक्षसी ताड़का का वध किया - एक सी बात। परन्तु नहीं, राक्षसी का वध दोनों ने किया यह तो एक-सी बात परन्तु वध करने की प्रक्रिया में, स्थिति में भेद है। श्रीरामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण में भेद नहीं है। परन्तु भगवान श्रीरामचन्द्र ने विश्वामित्र के पास पहले महान प्रभाव वाले अस्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। जब विश्वामित्र ले गये तो पहले राम को अस्त्रदान दिये। उसके बाद ब्रह्मतेजसम्पन्न शस्त्र के द्वारा उन्होंने ताड़का का विनाश किया, मारा। किन्तु पूतना को मारने में कौन-सा अस्त्र लिया भगवान ने। स्तनपायी - छः दिन के बच्चे-स्तन पीने वाले उस शिशुमूर्ति ने स्तन्य पान करते करते घोराकृति पूतना राक्षसी का संहार कर दिया। इस ‘वीर्य’ का प्रकाश और कहाँ हुआ बचपन में? पुनश्च, गोवर्धन धारण यह अचिन्त्य शक्ति का ही वैभव है। भगवान ने कूर्म मूर्ति में भी तो पृथ्वी धारण किया था परन्तु भेद है।

कूर्म मूर्ति में मन्दर पहाड़ को धारण किया पीठ पर; तो वहाँ पीठ को सौ योजन विस्तारवाली बनाया पहले। सौ योजन विस्तारवाली कूर्म की पीठ बनी तब उस पर मन्दराचल को धारण किया, पहाड़ उठाया। पर यहाँ पर तो कनिष्ठि का अँगुली पर यों उठा लिया गिरिराज को। यह वीर्य का प्रकाश कहीं और हो तो बताओ? उस समय सात वर्ष के बालक थे। कूर्मावतार में केवल मन्दराचल को उठाया तो वहाँ भी नीचे समुद्र रहा, यहाँ तो अँगुली पर उठाया और उसके नीचे तमाम व्रजवासियों की रक्षा की। गो-गोपी सबकी रक्षा की। अतएव श्रीकृष्ण लीला के समान अचिन्त्य वीर्य का शक्ति का प्रकाश और कहीं नहीं है।

इसी प्रकार यश का, श्री का, ज्ञान का, वैराग्य का, पूर्णतम प्रकाश इस मूर्ति में है। भगवान की सभी लीलाओं में यश है, सद्गुण की ख्याति है। इसमें कोई सन्देह नहीं परन्तु परिपूर्णता नहीं। भगवान राम ने, नृसिंह ने लीलाओं में असुरों का विनाश किया परन्तु उनकी किसी भी लीला में असुरों की मुक्ति नहीं हुई। जय-विजय जो थे हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष बने, फिर रावण-कुम्भकर्ण बने तो मारा उनको, विनाश किया परन्तु वहाँ उनकी मुक्ति थोड़े हुई। वह जब शिशुपाल-दन्तवक्त्र बने तब इन्होंने मारा और तब मुक्ति हुई। तो यश-विस्तार भी यहाँ पूरा है। वहाँ माने का यश-विस्तार तो है परन्तु इनकी मुक्ति नहीं हुई। यह तो जय-विजय थे जिनके तीन जन्मों के बाद मुक्ति हुई और मुक्त यहाँ हुए, वहाँ नहीं हुए। इसलिये भगवान के यश का विस्तार भी यहीं हुआ। क्योंकि मृत्युकाल में यदि भगवान की भगवत्ता परिपूर्ण रूप से जागृत हो जाय तो मुक्ति हुए बिना रहती नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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