रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 31

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

भगवान की पूर्णता में भेद नहीं है। स्वरूप में भेद नहीं परन्तु लीला विकास में भेद है। इसलिये ‘ऐते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।’[1] ‘अंशकला का अर्थ उनकी पूर्णता में कमी नहीं है। यह भगवान के जो मत्स्य-कूर्मादि अवतार समूह हैं इसीलिये भगवान के अंशावतार, कलावतार ऐसे माने जाते हैं। भगवान का जो श्रीकृष्ण विग्रह है यह स्वयं परिपूर्ण है। तो भगवान जब मत्स्य, कूर्मादि लीला करते हैं तब उनके परिपूर्ण ऐश्वर्य के प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है। उनमें है नहीं, सो बात नहीं। भई! एक आदमी एक मन बोझ उठा सकता है परन्तु बोझ दो सेर ही है तो दो सेर उठाता हुआ दीखता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि वह एक मन नहीं उठा सकता है। इसी प्रकार से वहाँ पर परिपूर्ण रूप से ऐश्वर्य-वीर्यादि शक्तियों के प्रकाशन की आवश्यकता नहीं परन्तु जब श्रीकृष्ण रूप में लीला करते हैं भगवान तब उनकी सारी शक्तियों का प्रकाश होता है - इसलिये कहते हैं कि ये ‘स्वयं भगवान हैं - ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।’

भगवान ने रमण करने की इच्छा की - ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ इस पर अगर निरपेक्ष भाव से समालोचना की जाय तो यह बात ठीक ध्यान में आती है कि लीला प्रकरण भगवान की अनन्त मूर्तियों के तारतम्य से यह एक होने पर भी ज्ञानी के ज्ञान साधन से निर्विशेष ब्रह्मरूप की अनुभूति होती है। योगी के योगसाधन से परमात्मा रूप की अभिव्यक्ति होती है और भक्तों के भक्ति साधन से वही भगवान भगवत रूप से प्रकाशित होते हैं। जो मत्स्य, कूर्मादि अनन्त मूर्तियों में अनन्त लीला करते हैं, उन्हीं भगवान सच्चिदानन्द विग्रह स्वयं श्रीकृष्ण ने रमण करने की इच्छा की। यह दिखाया कि ब्रह्म, परमात्मा और अनन्त अवतार स्वरूप इनमें तत्त्वतः स्वरूपतः भेद नहीं है। इच्छा उन्होंने ही की परन्तु उनमे इच्छा है नहीं यह भगवान शब्द इसीलिये आया है कि ब्रह्म से और परमात्मा से और अन्यान्य अवतारों से यह अलग है। ‘श्रीकृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ यहाँ जो भगवान है वह श्रीकृष्ण के लिये है। अवतारों से भेद, ब्रह्म-परमात्मा से भेद स्वरूपतः भेद नहीं है। तो ‘भगवान्पि ता रात्रीः’ इस श्लोकांश में ‘भगवान’ शब्द पर विचार करने से पूर्वोक्त युक्तियों के द्वारा यह सिद्ध हो गया कि यहाँ पर श्रीकृष्ण ही ‘भगवान’ शब्द वाच्य है।

इसीलिये कहते हैं यही स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही ज्ञान और योग साधना की सिद्धि की दशा में ज्ञानी और योगियों को निश्चल चित्तवृत्ति के द्वारा ब्रह्म और परमात्मा रूप से प्रकाशित होते हैं और यह भगवान मत्स्य, कूर्म, नृसिंह, राम, नारायण आदि मूर्तियों में आविर्भूत होकर विविध लीलास्वादन करते हैं। तथापि यह सर्वलीला मुकुटमणि रासलीला यह उनकी कृष्णमूर्ति में अनुष्ठित होती है और मूर्तियों में नहीं। यह लीला इनकी इसी मूर्ति का निजस्व है। अर्थात रासलीला, श्रीकृष्ण विग्रह का निजस्व है। अपनी चीज। और मूर्तियों में षडविध शक्ति रहने पर भी इस लीला का विकास नहीं। तो अब फिर कहते हैं कि यहाँ पर इन छः महान शक्तियों का पूर्ण विकास है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 1।3।28

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