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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
स्वरूपतः भेद न होने पर भी गोपियों को ब्रह्म या परमात्मा का अनुभव नहीं हुआ। इस लीला के साथ ब्रह्म और परमात्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है; एक होने पर भी। ऐश्वर्य, वीर्यादि षडविध महाशक्ति निकेतन जो सच्चिदानन्दघन विग्रह श्रीभगवान हैं; वे उस लीला के नायक हैं। लीला में नायक होना चाहिये। तो भगवान ने रमण करने की इच्छा की। ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ इस श्लोकांश के द्वारा कोई यह अर्थ करे कि ब्रह्म किवां परमात्मा का जीव चैतन्य के साथ मिलन है और उसका यह रासलीला का वर्णन है तो कहते हैं कि यह तात्पर्य ठीक नहीं समझा गया। यह भगवान का वर्णन है! अब स्वरूपतः भगवान की बात है। श्रीभगवान स्वरूपतः एक होने पर भी - ब्रह्म परमात्मा की बात तो आ गयी अब भगवान के अलग-अलग भेद हैं। श्रीभगवान स्वरूपतः एक होने पर भी ‘एकमेवाद्वितीयम्’ सिद्धान्त है। उनकी लीला की अनन्ता से उनके श्रीविग्रहों की लीलारूप अनन्तता सब शास्त्र सिद्ध है। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, राम, नारायण आदि जो अनन्त मूर्तियाँ हैं - यह भगवान की ही मूर्तियाँ हैं और ये अनन्तलीला करते हैं। रासलीला उन अनन्त लीलाओं में अन्यतम लीला है। इसमें नव किशोर नटवर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की मूर्ति ही इन अनन्त मूर्तियों में अन्यतम है। ब्रह्म और परमात्मा के साथ जैसे भगवान का स्वरूप भेद जरा भी न होने पर भी अविर्भाव भेद है, लीला भेद है। इसी प्रकार मत्स्य-कूर्मादि के साथ भी श्रीकृष्ण का स्वरूप भेद जरा भी न होने पर भी लीला भेद से आकृति भेद है।
श्रीमद्भागवत के कृष्ण लीला वर्णन के प्रकरण में ही रासलीला का वर्णन है। ‘योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः’[1] इस प्रकार से रासलीला के सौष्ठव का प्रदर्शन किया गया तो यह भी धारणा रखनी चाहिये यहाँ पर कि उसी भगवान ने मत्स्य-कूर्मादि अनन्त रूपों में अनन्त लीला करने पर भी रासलीला किया, कृष्णरूप में ही और रूपों में नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10।33।3
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