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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान विप्रलम्भ के द्वारा मानों मिलन के भाव को परिपुष्ट करना चाहते हैं। इसलिये पूछने में क्या-क्या पूछ गये? भाई घर में सब राजी-खुशी है न! कोई व्रज में विपत्ति तो नहीं आ गयी? कैसे इस समय भागकर यहाँ आयी। घर वाले ढूँढ़ते होंगे यहाँ ठहरना ठीक नहीं और वन की शोभा अगर देखने अयी तो वन की शोभा भी अब देख ली, अब लौट जाओ। देखो! तुम्हारे गायों के बछड़े सब खुले रह गये हैं और देखो बच्चे रोते होंगे। एक बात और है कि घर वालों की सेवा करना मोक्ष के अनुकूल कार्य है, तो इस सेवा को छोड़कर इस रात को यों भटकना स्त्रियों के लिये यह ठीक नहीं। स्त्रियों को तो अपने पति की सेवा करनी चाहिये। कोई कैसा भी क्यों न हो। यह साधन-धर्म है, ऐसा कहा। तो तुमको वहाँ जाना चाहिये और मैं यह भी जानता हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करती हो, तो प्रेम के लिये यह आवश्यक नहीं है कि पास आया जाय। श्रवण, मनन, दर्शन, ध्यान इनसे प्रेम तो खूब बढ़ता है चाहे पास न हो। इसलिये तुम जाओ और अपने सनातन सदाचार का पालन करो। इधर-उधर भटको मत। इस प्रकार से भगवान ने समझाया। यह शिक्षा बड़े काम की है परन्तु यह शिक्षा गोपियों के लिये नहीं है। इनमें न जड़ शरीर था और न ही प्राकृतिक अंग संग था; न इसके सम्बन्ध में कोई प्राकृतिक बात थी, न स्थूल कल्पनाएँ थी। यह था चिदानन्द भगवान का दिव्य विहार जो दिव्य लीलाधाम में सर्वथा होते हुए भी यहाँ कभी-कभी प्रकट होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10।29।18
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