रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 238

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला (पदों में)

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थीं वे विकसित शारदीय

एक एक के मध्य मनोहर एक एक, सब मिल, दे ताल।
रास-रसिक रस-नृत्य-निरत, शुचि बाज रहे मृदु वाद्य रसाल।।
जो इस मधुर शुद्ध रस का किंचित भी कर पाता आस्वाद।
दृश्य जगत का मिटता सारा शोक-मोह-भय-लोभ-विषाद।।
होता कामरोग का उसके जीवन में सर्वथा अभाव।
राधा-माधव-चरण-रेणु-कण-करुणा से वह पाता ‘भाव’।।
‘भाव’ प्राप्त हो वह हो पाता राधारानी का अनुचर।
सभी दोष मिट, होती उसमें प्रकट गुणावलि शुचि सत्त्वर।।
पाता वह फिर, नित निकुञ्ज में अति दुर्लभ सेवा-अधिकार।
जिसके लिये सदा ललचाते ऋषि-मुनि-तापस छोड़ विकार।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद-रत्नाकर, पद सं.-263

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