रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 235

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला (पदों में)

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थीं वे विकसित शारदीय

विविध भाँति से किया परीक्षण, दिखा मोह, भय, धर्म, विवेक।
पर उन प्रेममयी शुचि ब्रज-वधुओं ने तनिक न छोड़ी टेक।।
कहा-‘विभो! सर्वत्र विराजित! सर्व-समर्थ! सर्व-आधार।
क्यों नृशंस तुम बोल रहे यों? आयीं हमें देख निज द्वार।।
त्याग सर्व-विषयों को-भुक्ति-मुक्ति को, हम आयीं पद-मूल।
दुरवग्रह! मत छोड़ो हमकों, यों सारी रसमयता भूल।।
प्रिय! तुम ही हो प्राणिमात्र के बन्धु, आत्मा अति प्रियतम।
पाकर छोड़ जाय जो तुमको, महामूर्ख वह, पतित, अधम।।
तुम्हीं बताओ परम धर्मविद्! नित्यप्रिय! तुमसे कर प्रीति।
भजे अन्य दुःखद को फिर से, क्या है कभी उचित यह नीति?
छोड़ कहाँ हम जायँ तुम्हें अब, चलते नहीं चरण पद एक।
सुख से लूट सभी का मन-धन, चले बताने हमें विवेक’।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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