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थीं वे विकसित शारदीय
- विविध भाँति से किया परीक्षण, दिखा मोह, भय, धर्म, विवेक।
- पर उन प्रेममयी शुचि ब्रज-वधुओं ने तनिक न छोड़ी टेक।।
- कहा-‘विभो! सर्वत्र विराजित! सर्व-समर्थ! सर्व-आधार।
- क्यों नृशंस तुम बोल रहे यों? आयीं हमें देख निज द्वार।।
- त्याग सर्व-विषयों को-भुक्ति-मुक्ति को, हम आयीं पद-मूल।
- दुरवग्रह! मत छोड़ो हमकों, यों सारी रसमयता भूल।।
- प्रिय! तुम ही हो प्राणिमात्र के बन्धु, आत्मा अति प्रियतम।
- पाकर छोड़ जाय जो तुमको, महामूर्ख वह, पतित, अधम।।
- तुम्हीं बताओ परम धर्मविद्! नित्यप्रिय! तुमसे कर प्रीति।
- भजे अन्य दुःखद को फिर से, क्या है कभी उचित यह नीति?
- छोड़ कहाँ हम जायँ तुम्हें अब, चलते नहीं चरण पद एक।
- सुख से लूट सभी का मन-धन, चले बताने हमें विवेक’।।
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