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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवाँ अध्याय
जीवों पर कृपा करने के लिये ही भगवान अपने सच्चिदानन्दघनस्वरूप को मनुष्य देह के रूप में प्रकट करके वैसी ही लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर मनुष्य उन भगवान के परायण हो जाता है। अतएव भगवान की इस दिव्य भावमयी लीला में तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिये।।37।।
यह भावमयी दिव्य लीला थी, जिसके कारण व्रजवासी गोपों ने भगवान की योगमाया से मोहित होकर ऐसा अनुभव किया कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही सोयी हैं और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की।।38।।
फिर जब ब्राह्ममुहूर्त आ गया, तब भगवान की अत्यन्त प्यारी वे गोपसुन्दरियाँ अपने-अपने घरों को लौट गयीं। यद्यपि उनकी लौटकर जाने की तनिक भी इच्छा नहीं थी, तथापि वे अपनी प्रत्येक क्रिया से भगवान श्रीकृष्ण को ही सुखी करना चाहती थीं, उनमें श्रीकृष्ण-सुख से पृथक किसी निज-सुख की कामना तो थी नहीं, इसलिये वे भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा होते ही चली गयीं।।39।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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