रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 228

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पाँचवाँ अध्याय

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श्रीशुक उवाच
धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्।
तेजीयसां न दोषाय वह्ने
सर्वभुजो यथा।।30।।

परीक्षित के इस संदेहयुक्त प्रश्न से विरक्तशिरोमणि शुकदेव जी के द्वारा प्रवाहित लीलारस का प्रवाह रुक गया और वे परीक्षित का संदेह दूर करने के लिये लौकिक युक्तिपूर्ण वचन बोले-

श्रीशुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! कर्म की अधीनता से मुक्त ईश्वरकोटि के महान तेजस्वी देवताओं द्वारा कभी-कभी धर्म का उल्लंघन तथा ऐसे परम साहस के कार्य होते देखे जाते हैं। परन्तु उन कार्यो से उन तेजस्वी देवताओं का कोई दोष नहीं माना जाता। जैसे अग्नि शवदेहादिपर्यन्त सब कुछ खा जाता है, परंतु उसके उस कार्य को कोई भी दोषयुक्त नहीं मानता।।30।।

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।
विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्यथारुद्रोऽब्धिजं विषम्।।31।।

परन्तु जो अनीश्वर हैं, समर्थ नहीं हैं, अजितेन्द्रिय तथा देहाभिमानी हैं, उन्हें, शरीर से तो दूर रहा, कभी मन से भी ऐसी चेष्टा नहीं करनी चाहिये। यदि कोई मूर्खतावश ईश्वर की इस लीला का अनुकरण करके इस प्रकार का आचरण कर बैठेगा तो वह नष्ट-पतित हो जायगा। भगवान शिव जी ने समुद्र से उत्पन्न हलाहल विष पी लिया था, पर उनकी देखा-देखी दूसरा कोई पीयेगा तो वह निश्चय ही जलकर भस्म हो जायगा।।31।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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