रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 226

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पाँचवाँ अध्याय

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सोऽम्भस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः
प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरिस्तस्ततोऽंग।
वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो
रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः।।24।।

परीक्षित! यमुना जी के जल में वे व्रजतरुणियाँ प्रेममयी चितवन से श्रीकृष्ण की ओर देखती हुई तथा खिलखिलाकर हँसती हुई उन पर चारों ओर से खूब जल उलीचने लगीं। इस दृश्य को देखकर विमानों पर बैठे हुए देवता फूल बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार अपने-आप में ही नित्य रमण करने वाले भगवान स्वयं गजराज की भाँति यमुना जल में गोपांगनाओं के साथ जल-विहार की लीला करने लगे।।24।।

ततश्च कृष्णोपवने जलस्थल-
प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे।
चचार भृंगप्रमदागणावृतो
यथा मदच्यृद् द्विरदः करेणुभिः।।25।।

इसके पश्चात यमुना जी से निकरलकर भ्रमरों तथा व्रजयुवतियों से घिरे हुए भगवान उस रमणीय उपवन में गये, जहाँ सब और स्थल में सुन्दर सुगन्धयुक्त पुष्प खिले हुए थे और उनकी सुगन्ध का प्रसार करती हुई मन्द मनोहर वायु चल रही थी। उस उपवन में भगवान उसी प्रकार विचरने लगे, जैसे मद चुवाता हुआ गजराज हथिनियों के साथ घूम रहा हो।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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