रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 225

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पाँचवाँ अध्याय

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गोप्यः स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्-
गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन।
मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि
पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः।।22।।

भगवान श्यामसुन्दर के कर-कमलों और नखों के स्पर्श से गोपियाँ प्रमुदित हो गयीं। उन्होंने अपने कपोंलों की सुन्दरता से, जिन पर झिलमिलाते हुए सुवर्णमय कुण्डलों की आभा छिटक रही थी तथा घुँघराले केशों की लटें लहरा रहीं थीं, एवं अपनी सुधामयी मधुर मुस्कान से युक्त प्रेममयी चितवन से उन पुरुषोत्तम भगवान का सम्मान किया और फिर वे उनकी परमपवित्र प्रेमसुधामयी लीलाओं का गान करने लगीं।।22।।

ताभिर्युतः श्रममपोहितुमंगसंग-
घृष्टस्त्रजः स कुचकुंकुमरञ्जितायाः।
गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत आविशद् वाः
श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः।।23।।

तदनन्तर जैसे विलास-क्रिया से थकला हुआ गजराज बाँध को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में प्रवेश करके विविध प्रकार से क्रीड़ा करता है, वैसे ही थके हुए भगवान श्रीकृष्ण लोक और वेद की मर्यादा को भंग करके अपनी थकान दूर करने के लिये उन गोप-सुन्दरियों को लेकर श्री यमुना जी के जल में घुस गये। उस समय भगवान के गले की उस वनमाला से, जो गोप-सुन्दरियों के अंगों की रगड़ से कुछ मसली गयी थी और जो उनके वक्षःस्थल के केसर से केसरी रंग की हो रही थी, खिंचकर भ्रमरों के दल-के-दल उनके पीछे-पीछे मधुर गुंजार करते हुए उड़े आ रहे थे, मानों गन्धर्वगण उनकी लीलाओं का सुमधुर गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों।।23।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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