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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवाँ अध्याय
जैसे छोटा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमानाथ भगवान श्रीकृष्ण कभी उन गोपियों का आलिंगन करते, कभी हाथों से उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरक्षी चितवन से उनकी ओर निहारते और कभी विलासपूर्ण रीति से खिलखिलाकर हँस पड़ते। इस प्रकार उन्होंने उन निजस्वरूपभूता व्रजसुन्दरियों के साथ रमण किया। (वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण की यह स्वरूपभूता लीला थी। गोपियाँ तत्त्वतः श्रीकृष्ण से अभिन्न थीं; पर जैसे बालक अपना मुख स्वयं न देख पाने के कारण उसके साथ खेल नहीं सकता, परंतु दर्पणादि में अपनी परछाई देखकर विचित्र भाव-भंगिमाओं से उसके साथ खेलकर आनन्द का अनुभव करता है, वैसे ही श्रीभगवान भी अपने आप क्रीड़ा नहीं कर सकते। इसीलिये वे अपनी ही परछाईरूपा ह्लादिनी शक्ति की विकसित मूत्तियों श्रीव्रजसुन्दरियों के साथ विविध विलास करके निर्मल दिव्य रसानन्द का अनुभव करते हैं। अपने अलौकिक अनुपमेय प्रतिक्षणवर्धमान सौन्दर्य-माधुर्य-सुधारस का अनुभव करने के लिये ही वे निजस्वरूपा व्रज सुन्दरियों के साथ लीला करके उसका रसास्वादन करते हैं।)।।17।।
परीक्षित! प्रियतम भगवान के अंगों का संस्पर्श पाकर गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेमानन्द से विह्वल हो गयीं। उनके कण्ठों में पड़े हुए पुष्पहार टूट गये। उनके आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये। सजाये हुए केश बिखर गये। वे अपनी ओढ़नी तथा चोली को भी जल्दी से सँभालने में असमर्थ हो गयीं।।18।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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