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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी गोप सुन्दरियाँ अति मधुर स्वर से प्रियतम की मधुर लीलाओं का गान करती हुई नृत्य कर रही थीं। उस समय, वे मस्तक की वेणी और कमर के लहँगे की डोरी को कसकर बाँधे हुए भाँति-भाँति से पैरों को नचा रही थीं, चरणों की गति के अनुसार भुजाओं से कलापूर्ण भाव प्रकट कर रही थीं, मंद-मंद मुसकरा रही थीं और भौंहों को मटका रही थीं। नाचने में कभी-कभी पतली कमर चलक जाती थी, उनके स्तनों के वस्त्र उड़ जा रहे थे, कानों के कुण्डल हिल-हिलकर अपनी प्रभा से उनके कपोलों को और भी चमका रहे थे। नाचने के श्रम से उनके मुखों पर पसीने की बूँदें झलक रही थीं। उस समय वे व्रज सुन्दरियाँ ऐसी असीम शोभा पा रही थीं मानो नील बादलों के बीच-बीच में स्वर्ण वर्णा बिजलियाँ चमक रही हों।।8।।
श्रीकृष्ण के साथ क्रीडा में आसक्त वे सुन्दर कण्ठवाली व्रजरमणियाँ भगवान श्रीकृष्ण का संस्पर्श प्राप्त कर आनन्दमग्न हो रही थी। वे नाचती हुई ऊँचे स्वर से परम मधुर गान कर रही थीं। उनकी संगीत-ध्वनि से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो रहा था।।9।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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