रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 211

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

चौथा अध्याय

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ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः।
व्यरोचताधिकं तात पुरुषं
शक्तिभिर्यथा।।10।।

अपने दिव्य-सौन्दर्य-माधुर्ययुक्त सच्चिदानन्दघन स्वरूप में नित्य स्थित, षडैश्वर्य सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण आज विरह-विषाद से मुक्त गोपियों के बीच में और भी विशेष सुशोभित होने लगे, जैसे परात्पर पुरुष परमात्मा प्रत्यक्षरूप में अपनी ज्ञान, बल आदि शक्तियों से घिरकर सुशोभित होते हैं।।10।।

ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः।
विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम्।।11।।

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण उन समस्त गोप-ललनाओं को साथ लेकर यमुना जी के पावन पुलिन पर आ विराजे। उस समय वहाँ खिले हुए कुन्द और मन्दार के पुष्पों की सुगन्धि को लिये वायु चल रही थी और उससे मत वाले हुए भ्रमर सर्वत्र उड़ रहे थे।।11।।

शरच्चन्द्रांशुसंदोहध्वस्तदोषातमः शिवम्।
कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम्।।12।।

शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणें सब ओर छिटक रही थीं, इससे रात्रि का अन्धकार सर्वथा मिट गया था और सारा वातावरण मंगलमय हो रहा था। श्री यमुना जी ने भगवान की मधुरलीला के लिये अपने तरंगरूपी हाथों से वहाँ सुकोमल वालुका बिछा रखी थी।।12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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