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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चौथा अध्याय
एक गोपी नेत्ररूपी प्यालों से श्रीकृष्ण के मुख-कमल-मकरन्द का पान करने भी-भगवान के सुन्दरवदन-सरोज को बार-बार देखकर भी फिर अपलक नेत्रों से वैसे ही अतृप्त होकर देखने लगी, जैसे शान्त एवं दासभक्त भगवान के श्रीचरणों का बार-बार दर्शन करने पर भी तृप्त नहीं होते और उन्हें निरन्तर देखते ही रहना चाहते हैं।।7।।
कोई एक व्रजसुन्दरी नेत्रों के मार्ग से श्यामसुन्दर को अपने हृदय में ले गयी और फिर नेत्रों को बंद करके भीतर-ही-भीतर उनको हृदय से लगाकर वैसे ही परमानन्द में निमग्न एवं रोमाञ्चित हो गयी, जैसे योगी अपने इष्ट परमात्मा को ध्यान के द्वारा प्राप्त कर उसमें निमग्न हो जाते हैं।।8।।
जैसे मुमुक्षु साधक ब्रह्म को प्रापत करके समस्त संसार-ताप से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही वे सब व्रजसुन्दरियाँ श्रीकृष्ण के मधुर दर्शन से परम उल्लास और दिव्य आनन्द को प्राप्त हो गयीं तथा उन्होंने विरह से उत्पन्न संताप का सर्वथा परित्याग कर दिया।।9।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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