रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 208

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

चौथा अध्याय

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श्रीशुक उवाच
इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा।
रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः।।1।।

श्रीशुकदेवजी ने कहा - राजा परीक्षित! भगवान श्यामसुन्दर के विरह में गोपियाँ इस प्रकार विविध भाँति से गाती और प्रलाप करती हुई, प्राण-मन को सर्वथा आकर्षित कर लेने वाले उन प्रियतम के दर्शन की लालसा लिये हुए करुणा पूर्ण मधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं।।1।।

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्ममन्मथः।।2।।

उसी सयम उनके बीच में शूरसेन के वंशज भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनके मुख-सरोज पर मधुर मुस्कान खेल रही थी, वे गले में वनमाला और शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका रूप-सौन्दर्य सबके मन को मथ डालने वाले स्वयं कामदेव के मन को भी मथ डालने वाला था।।2।।

तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः।
उत्तस्थुर्युगपत् सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्।।3।।

उन सौन्दर्य-माधुर्य-निधि प्रियतम श्यामसुन्दर को अपने बीच में आया देख गोपियों के नेत्र प्रेमानन्द से खिल उठे। ये गोपियाँ सब-की-सब एक साथ ही इस प्रकार उठ खड़ी हुई, जैसे प्राणहीन शरीर प्राणों के लौटते ही उठ खड़ा हो।।3।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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