रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 207

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

तीसरा अध्याय

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यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।19।।

प्रियतम! तुम्हारे चरण कमल अत्यन्त सुकुमार हैं, हम उन्हें अपने उरोजों पर भी बहुत ही धीरे से रखती हैं; हमें डर लगता रहता है कि हमारे कठोर उरोजों से उन कोमल पद-कमलों को कहीं चोट न लग जाय। उन्हीं सुकुमार चरणों से आज हमसे छिपकर तुम वन-वन भटक रहे हो। कंकट-पत्थरों की नोंक लगकर उनमें बड़ी पीड़ा हो रही होगी। हमारी बुद्धि इसी चिन्ता से व्याकुल होकर चक्कर खा रही है। प्यारे! हमारे जीवन के जीवन तो एकमात्र तुम्हीं हो।।19।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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