रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 206

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

तीसरा अध्याय

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रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः।।17।।

प्रियतम! तुमने एकान्त में हम से प्रेमभरी बातें की हैं, तुम्हारा वह प्रेमालाप, प्रेम की कामना को उद्दीप्त करने वाला तुम्हारा मुसकाता हुआ मुख-कमल, तुम्हारी प्रेमभरी तिरछी चितवन, लक्ष्मी जी नित्यनिवासधाम तुम्हारा विशाल वक्षःस्थल-इन सभी को देखकर, इनका स्मरण करके हमारी तुमसे मिलने की लालसा अत्यन्त बढ़ गयी है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध हो रहा है।।17।।

व्रजवनौकसां व्यक्तिरंग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंगलम्
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्।।18।।

प्रियतम श्यामसुन्दर। तुम्हारा यह व्रज में अविर्भाव व्रजवासियों के समस्त दुःखों का नाश करने और विश्व का परम कल्याण करने के लिये है। हमारे हृदय के समस्त मनोरथ एकमात्र तुम्हीं में केन्द्रित हो गये हैं, हम तुम्हारे सिवा और कुछ चाहतीं ही नहीं। हम तुम्हारी अपनी ही हैं; हमें अब थोड़ी-सी वह वस्तु दो, जो तुम्हारे निजजनों के हृदय रोगों को सर्वथा नष्ट कर दे।।18।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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