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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
तीसरा अध्याय
प्रियतम! दिन के समय जब तुम गौएँ चराने के लिये वन में चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारा आधे क्षण का समय भी युग बन जाता है। फिर जब संध्या के समय तुम वन से लौटते हो, तब तुम्हारे घुँघराले केशों से सुशोभित श्रीमुख का हम दर्शन करती हैं। उस समय पलकों का गिरना हमें असह्य हो जाता है; क्योंकि उतने समय तक तुम्हारे दर्शन से नेत्र वञ्चित रहते हैं। इसलिये हमें जान पड़ता है कि नेत्रों पर पलकें बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।15।।
प्रियतम! तुम कभी अपने प्रेममय स्वभाव से च्युत नहीं होते। तुम चतुर-शिरोमणि भलीभाँति जानते हो कि हम सब तुम्हारे मुरली गान से मोहित होकर अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु, कुल-परिजन- सबका त्याग करके उनकी इच्छा का अतिक्रमण करके तुम्हारे पास आयी हैं। फिर भी तुम हमें छोड़कर चले गये। अरे कपटी! इस प्रकार की घोर रात्रि के समय शरण में आयी हुई तरुणियों को तुम्हारे अतिरिक्त और कौन त्याग सकता है।।16।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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