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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
तीसरा अध्याय
परंतु प्रियतम! हमारे मन की सारी व्यथा का हरण करने वाले भी एकमात्र तुम्हीं हो। तुम्हारे चरण-कमल शरण में आये हुए मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। स्वयं ब्रह्मा जी उनका नित्य पूजन करते हैं। विपत्ति के समय ध्यानमात्र से ही वे समस्त विपत्तियों का नाश कर देते हैं और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं। उन अपने चरण-सरोजों को, हे विहार-सुख देने वाले प्रियतम! हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हृदय की सारी व्यथा का नाश कर दो।।13।।
हृदय की व्यथा का हरण करने में समर्थ वीरशिरोमणे! तुम्हारी अधर-सुधा दिव्य सम्भोग-रस को बढ़ाने वाली है, सुन्दर स्वरों में गान करने वाली बाँसुरी उसे सदा भलीभाँति चूमती रहती है। जिसने एक क्षण के लिये एक बिन्दुमात्र भी कभी उसका पान कर लिया, उसकी अन्य समस्त आसक्तियाँ ता कामनाएँ सदा के लिये विस्मृत हो जाती हैं, ऐसी अपनी वह अधरसुधा हम लोगों में वितरण कर दो-हम सबको पिलाकर कृतार्थ करो।।14।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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