रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 203

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

तीसरा अध्याय

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चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।
शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति।।11।।

हमारे प्राणनाथ, जीवनसर्वस्व! तुम्हारे चरण अरुणिमा, मृदुता तथा दिव्य सुगन्ध में कमल के समान अत्यन्त सुन्दर हैं; जिस समय तुम गौओं को चराते हुए व्रज से वन की ओर आते हो, उस समय यह सोचकर कि तुम्हारे उन अत्यन्त मृदु चरण-कमलों में कुश, काँटे, अंकुर तथा कंकण आदि गड़ते होंगे और बड़ी पीड़ा होती होगी, हम लोगों के मन में बड़ी ही व्यथा होती है। यह दशा तो दिन में वनगमन के समय होती है। इस रात्रि के समय तो उन मृदुल चरणों में विशेष पीड़ा हो रही होगी-इस चिन्ता से हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। तुम तुरंत आकर उनकी रक्षा करो।।11।।

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
धनरजस्वलं दर्शयन् मुहु
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि।।12।।

हमारे हृदयों को प्रेम बाण से बींध देने में तुम बड़े ही शूरवीर हो। संध्या के समय जब तुम वन से लौटते हो, तब हम देखती हैं कि तुम्हारे मुख-सरोज पर नीली घुँघराली अलकावली छायी हुई है और वह गोधूलि से धूसरित हो रहा है। उस समय तुम अपनी उस मुख-माधुरी के हमें बार-बार दर्शन कराकर हमारे मन में प्रेम-व्यथा का संचार कर देते हो। इस प्रकार नित्य ही तुम हमारे हृदयों का प्रेम बाण से बींधा करते हो, पर आज तो उसकी चरम सीमा हो गयी है - पहले तो हमें वेणुगान करके अपने पास बुलाया, हमारे साथ लीला-विहार किया और फिर छोड़कर चले गये!।।12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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