रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 198

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

तीसरा अध्याय

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गोप्य ऊचुः

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते।।1।।

श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल वे प्रेममयी गोपियाँ गाने लगीं-‘हे प्रियतम! तुम्हारे प्रकट होने के कारण इस व्रज का गौरव वैकुण्ठ आदि दिव्य लोकों से भी अधिक हो गया है; तभी तो अखिल सौन्दर्य-माधुर्य की दिव्य मूर्ति श्री लक्ष्मी जी अपने नित्य निवास वैकुण्ठ को छोड़कर इस व्रज को सुशोभित करती हुई यहाँ निरन्तर निवास कर रही हैं। इस महान सुख से पूर्ण सौभाग्यमय व्रज में हम गोपियाँ ही ऐसी हैं, जो तुम्हारी भी, तुममें अपने प्राणों को पूर्णरूप से समर्पण करके भी वन-वन भटककर सब ओर तुम्हें ढूँढ़ रहीं हैं, पर तुम मिल नहीं रहे हो। विरहज्वाला से जलती हुई भी इसी आशा से हम सर्वथा भस्म नहीं हो रही हैं कि तुम शीघ्र मिलोगे! अतएव अब तुम तुरंत दीख जाओ।।1।।

शरदुदाशये साधुजातसत्-
सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः।।2।।

हे हमारे रसेश्वर! हे वर देने वाले में श्रेष्ठ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासियाँ हैं। तुम शरद ऋतु के सरोवर में खिले हुए उत्कृष्ट जाति के परमसुन्दर कमल कोशों की कर्णिका की सौन्दर्य-सुषमा को चुराने वाले अपने नेत्रों की मार से हमें मार चुके हो। इस जगत में इस प्रकार नेत्रों से किसी को मार डालना क्या वध नहीं है?।।2।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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