रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 197

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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तन्मनस्कास्तदालापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः।
तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि सस्मरुः।।44।।

उन सब गोपियों का मन श्रीकृष्णचन्द्र के मन वाला हो रहा था, उनकी वाणी केवल श्रीकृष्ण के लिये और श्रीकृष्ण की ही चर्चा में लगी हुई थी, उनके शरीर से होने वाली प्रत्येक चेष्टा केवल श्रीकृष्ण की ही थी। वे श्रीकृष्ण में ही सर्वथा घुल-मिल गयी थीं, श्रीकृष्ण के गुणों का ही गान कर रही थीं। वे इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने देह-गेह की भी सुध नहीं थी, फिर घर-बार की स्मृति होती ही कैसे?।।44।।

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः।
समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकांक्षिताः।।45।।

श्रीकृष्ण के शीघ्र ही आगमन की आकांक्षा से एकत्र होकर श्रीकृष्ण की भावना से तन्मय हुई वे सब भाग्यवती व्रजसुन्दरियाँ फिर श्री यमुना जी के पावन पुलिन पर लौट आयीं और वहाँ सब मिलकर प्रियतम श्रीकृष्ण की लीलाओं का मधुर गान करने लगीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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