रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 183

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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दृष्टो व: कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मन:।
नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनै:।।5।।

व्रजसुन्दरियों ने पहले बड़े-बड़े वृक्षों के पास जाकर उनसे पूछा - ‘हे पीपल, पाकर, वट! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेम भरी मुस्कान तथा चितवन से हम लोगों के मन चुराकर कहीं चले गये हैं, क्या तुम लोगों ने उनको देखा है?।।5।।

कच्चित्‌ कुरबकाशोकनागपुंनागचम्पका:।
रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मित:।।6।।

हे कुरबक! अशोक! नागकेशर! पुंनाग! चम्पक! जिनकी मधुरतम मुस्कान मात्र से बड़ी-बड़ी मानिनी रमणियों का दर्प चूर्ण हो जाता है, वे बलराम जी के छोटे भाई श्रीकृष्णचन्द्र इधर से गये हैं क्या? ।।6।।

कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये।
सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्‌ दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युत:।।7।।

जब इन पुरुषजातीय वृक्षों से उत्तर नहीं मिला, तब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से पूछा - ‘बहिन तुलसी! तुम तो कल्याणमयी हो, सबका कल्याण चाहती हो। तुम्हारा श्रीगोविन्द के चरणों में बड़ा प्रेम है और वे भी तुमसे प्रेम करते हैं; इसीलिये भ्रमरों से घिरी हुई तुम्हारी माला को सदा हृदय पर धारण करते हैं। उन अपने प्रियतम अच्युत-जो अपने प्रेम-स्वभाव से कभी च्युत नहीं होते - श्यामसुन्दर को क्या तुमने इधर से जाते देखा है?।।7।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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