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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दूसरा अध्याय
गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु इससे प्रियतम श्रीकृष्ण की ललित गति, मधुर हास, मनोरम चितवन, अमृतमय वचन आदि में वे श्रीकृष्ण की प्यारी व्रज सुन्दरियाँ उनके समान ही बन गयीं। उनके शरीर में भी वैसी ही चेष्टाओं का प्राकट्य हो गया और वे श्रीकृष्ण लीला-विलास के स्मरणजनित भाव से उन्मादिनी होकर श्रीकृष्ण स्वरूप ही बन गयीं तथा ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’ परस्पर इस प्रकार अपना परिचय देने लगीं।।3।। गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता जब उनका यह श्रीकृष्णावेश कुछ शिथिल हुआ, तब भाव बदला और वे सब मिलकर ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं तथा प्रेम में पागल-सी होकर एक वन से दूसरे वन में उन्हें ढूँढने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण जड़-चेतन सभी पदार्थों के अंदर और उनके बाहर भी सदा आकाश के सदृश एक रस तथा व्याप्त हैं। वे कहीं गये नहीं थे, परन्तु गोपियाँ उन्हें अपने बीच में न देखकर वनस्पतियों से-वृक्ष-लताओं से उनके समीप जा-जाकर प्रियतम का पता पूछने लगीं।।4।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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