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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दूसरा अध्याय
अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजांगना:। श्री शुकदेव जी बोले - भगवान श्रीकृष्ण अकस्मात् अन्तर्धान हो गये, उन्हें न देखकर व्रजसुन्दरियों की वैसी ही विकल दशा हो गयी, जैसी दल के स्वामी गजराज को न देखकर हथिनियों की हो जाती है। उनके हृदय में विरह की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी।।1।। गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितै- रमापति श्रीकृष्ण की ललित गति, प्रेमभरी सुमधुर मुस्कान, अत्यन्त मधुर तिरछी भृकुटी, प्रीतिभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप तथा अन्यान्य विविध लीला-विलास एवं श्रृंगार की भाव-भंगियों से उनका चित्त खिंचकर श्रीकृष्ण में लगा हुआ था। वे व्रज की गोपियाँ श्रीकृष्ण में ही तन्मय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की ही विभिन्न चेष्टाओं का ध्यान करने लगीं।।2।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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