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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान का शरीर अस्थि, मज्जा, रक्त, मांसमय नहीं है। यह भगवान का शरीर जो है वह सच्चिदानन्दमय है और इसमें विशेषता क्या है? सच्चिदानन्दमय देह में आँख सूँघ सकती है, हाथ देख सकते हैं, कान खा सकते हैं, जीभ सुन सकती है। मतलब यह है कि भगवान चाहें तो हाथों से देख लें, आँखों से चलें, जीभ के बदले त्वक से स्वाद लें क्योंकि उनका सारा-का-सारा अंग अवयव दिव्य है। श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण है। क्योंकि सर्वथा वह पूर्णतम हैं और इसीलिये एक विशेष बात है भगवान के शरीर में। हम लोगों का जो शरीर है यह पहले छोटा बच्चा होता है, फिर बढ़ता है और बढ़कर फिर उसमें धीरे-धीरे विकास होता है फिर क्षय होता है लेकिन भगवान का शरीर तो पन्द्रह वर्ष तक बढ़ता है तथा पन्द्रह वर्ष बाद फिर बढ़ता नहीं’- ज्यों-का-त्यों रहता है। लेकिन उनके सौन्दर्य का उत्तरोत्तर विकास होता है। सौन्दर्य का विकास होता है इसीलिये उनका जो रूप माधुर्य है यह प्रतिक्षण बढ़ने वाला है क्योंकि वह सच्चिदानन्दमय हैं विकासशील हैं- विनाशशील नहीं। हम लोंगो को जवानी के बाद बुढ़ापा आता है। बुढ़ापे के बाद मृत्यु होती है। जवानी का रूप बुढ़ापे में विकृत हो जाता है और मरने पर भयानक हो जाता है। लेकिन भगवान का जो स्वरूप सौन्दर्य है वह जवान नहीं होता है किशोर अवस्था में रहता है। पन्द्रह वर्ष से बड़ा नहीं होता है और इसके बाद उसका सौन्दर्य उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। तो भगवान की रूप माधुरी नित्यवर्द्धनशील है और नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है। उसमें ऐसा चमत्कार है कि औरों की बात छोड़ दें वह भगवान के अपने मन को आकर्षित कर लेती है। स्वमनमोहिनी उनकी सौन्दर्य माधुरी है। इसलिये इस विशुद्ध स्वरूप में किसी प्रकार की बुरी कामना नहीं करनी चाहिये, बुरे भाव नहीं करने चाहिये। जब यह गोपी साधना पूरी हो गयी। आवरण भंग हो गया। तब भगवान ने अगली रात्रियों में उनको आश्वासन दे दिया। अब वह अगली रात्रियाँ कौन-सी हैं, यह बात भगवान की दृष्टि के सामने है। उन्होंने शारदीय रात्रियों को देखा - ‘वीक्ष्य।’ भगवान ने देखा इसका अर्थ क्या है? यह जरा कठिन विषय है। उपनिषद में आता है ‘स इच्छत’[2] एकोऽहं बहुस्याम्।’ भगवान जब सृजन करते हैं संसार का तो क्या करते हैं कि उनमें एक संकल्प होता है कि हमें खेलना है। खेलना अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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